Saturday, September 3, 2011

यादों का पुलिंदा

शायद मै कभी ना जान पाऊं की उसने क्या क्या किया मेरे लिए 
जैसे की वो छोटी छोटी चीजें 
स्कूल जाने के लिए मेरा इन्तजार करना 
हर बात पर मेरी टांग खींचना 
और कभी मेरी गलती अपने ऊपर ले लेना 
कितने साल गुजर गए 
फिर भी जब वो मेरे पास होते है 
तो मै बन जाता हूँ एक बच्चा दुनिया से बेखबर 
वो है मेरे दोस्त, मेरी यादें, मेरा गुरुकुल, मेरा स्कूल!!!


दीवाली का त्यौहार करीब आ रहा है पर इस बार मुझे वो सब त्यौहार याद आ रहे है जो हमने अपने घर से दूर रहकर मनाए थे! वो होस्टल के दिन थे! नन्ही सी उम्र में माँ पिता जी ने बेहतर भविष्य बनाने के दूर बहुत दूर भेज दिया था! रोते सिसकते अपनों से दूर अजीब जालिमों के बीच भेज दिया था! गुस्सा तो इतना आता था की किताबों को आग लगा दूँ! इन्ही के चक्कर में घर से बेघर होना पड़ा था! कम्बख्त पढाई! 
  धीरे धीरे सिसकियाँ कम हुई जो लोग अजीब और जालिम लगते थे वही अब करीबी लगने लगे! दोस्तों और सीनियर्स ने वही भूमिका निभाई जिसकी उम्मीद पैरेंट्स से होती है! पैरेंट्स की भूमिका हमारे आर्थिक खर्चों का ख्याल रखना और हमारे लिए ढेर सारे सपने बुनने की होती गयी! यकीन मानें तारे ज़मीं पर देखते हुए बचपन का सारा दर्द आँखों से बहने को आतुर हो उठा था! हम सारे दोस्त एक ही नैया पर सवार थे! सब घर जाने को बेचैन, अपनी माँओं को याद करते , गुरुकुल के भोजनालय में घर के खाने का स्वाद ढूंड रहे सब अकेले!
  कहते है ग़म का ग़म से रिश्ता गाढ़ा होता है! सो हम एक दुसरे के साझी हो गए! दोस्त शब्द हर रिश्ते से बड़ा लगने लगा! अब त्यौहार घर पर कम होस्टल में ज्यादा अच्छे लगने लगे थे! खाने की पसंद और नापसंद तक लगभग एक सी थी, रीजन क्लियर था जो भी डिश किचन में कभी कभार अच्छी बनती थी वही सबकी फेवरिट थी! यह हाल हम दो चार दोस्तों का ही नहीं पूरे होस्टल का था!
जब हम होस्टल में कुछ पुराने हो गए रात को होस्टल की चारदीवारी फांद कर बाहर घुमने जाने लगे! मै और शशांक हर हफ्ते जाते थे! सोमदेव कभी नहीं गया बस एक पैकेट बिस्किट ही मंगाता रहा पूरी होस्टल लाइफ में और हम वो भी कभी नहीं लाये! वहां की मस्ती कभी नहीं भूलती, धर्मेन्द्र सिंह को हरी घास दिखा के बैल कह के चिढाना, शैलेन्द्र की शर्ट फाड़ना और लाइट चले जाने पर अरुण को परेशान करना अपनी अलमारी की चाभी से दूसरे की अलमारी खोलना और आदित्यदीप को चड्डी चोर कह के चिढाना कभी नहीं भूलता! रोज विनय से झगडा करके मारना और दूसरे के मारने पर उसको बचाना बहुत याद आता है! दीपांशु को पोजर अनूप साहू को तेल और विजय की पुड़ी भी कभी कभी आँखों में चमक ला देती है! विपुल के साथ हुई दोस्ती पर मिले ताने आँखें  नम कर जाती है! राधेश्याम भैया की योग कक्षाएं दशरथ जी के व्यंग पंडित जी की बुजुर्गियत भरी बातें और धीरेन्द्र भैया के साथ हुई बहस आज भी यादों में जिंदा हैं ! 
भैया जी का खौफ और फेंकने की आदत, दीदी का दुलार और संस्कृत पढाना, खरे पिताजी की हंसी, अवस्थी पिताजी का ना डराने वाला गुस्सा और अनुशासन, गुप्ता पिताजी की कवितायेँ , कमला माता जी का थारे कहने का अंदाज आज भी नहीं भूला हूँ! 
खजेंद्र भैया की मासूम हंसी , संजय भैया से कराते सीखना, छोटे वाले दशरथ जी को बेवजह परेशान करना, नंदू से अपने मन का खाने बनवाने के लिए लड़ना, और दारा को चाय के लिए पटाना कभी भूल ही नहीं सकता !जनार्दन पिताजी के साथ पुस्तकालय जाना, खेतों में घुसकर चने उखाड़ना, टमाटर तोड़ कर एक दूसरे को मारना, पपीते चुराकर खाना , बेर तोड़ने के लिए टंकी जाने के बहाने पहाड़ पर जाना और चोरी से मूली उखाड़ते समय पकडे जाना सब याद है!
अजीत का बोर्ड , दरवाजे तोडना, विक्रम और दीपांशु का विद  एक्शन चुटकुले सुनाना, सूर्यकमल का हर समय सलमान खान की तारीफ़ करना, अन्ज्नेय का चार पैसे वाली ग़जल सुना के पकाना , और गौरव को ढांचा कह के चिढाना, विनय को कूबड़ ,शशांक को नाऊ, मयंक को कल्लू पाल, शुभम को चपटी चिढाना, स्कूल से भाग कर गुप्ता जी के समोसे और लवकुश के यहाँ आलू  के पराठे खाना, शाम की प्रार्थना में अवस्थी पिताजी के भाषण के बीच में सुशील दुबे के साथ बेवजह ताली बजाना भी याद है!
पर जब हम होस्टल से बाहर आ गए तो हम बड़े हो चुके थे यह तो उम्र ही होती है दोस्तों के साथ की यानि की इस उम्र में कुछ ज्यादा ही याद आते  हैं! नतीजा यह की हम घूम फिर के दोस्तों के आस पास अपनी दुनिया बसाने लगे! तैयारी मेडिकल की हो या इंजीनियरिंग या फिर और कुछ, डिफरेंट ग्रुप्स में हम डिफरेंट सिटिज़ में हम बिखर गए लेकिन साथ नहीं छूटा! हम अपने स्कूल के साथियों को ना जाने कहाँ कहाँ से सूंघ लेते और उनके पास जा पहुंचते! अब घर वालों के परेशान होने का वक़्त था! परेशानी वही क्या दोस्त हमसे बढ़कर है?
उनके सवाल हमे खामोश कर देते! बात कौन किससे बढ़कर है नहीं रह  गयी पर उन्हें समझाई भी नहीं जा सकती! हम अलग अलग शहरों में अपना भविष्य गढ़ रहे है इस दौरान यह शगल भी चलता रहता है की कितनी  बार दोस्त की जरुरत वहां हाज़िर होने वाला शख्स कब कितनी बार घर पर मौजूद नहीं है! आप लोग सोच रहे होंगे की दिवाली और त्योहारों की बात करते करते मै इतना नास्टेल्जिक क्यों हो गया था, क्योंकि अब मै होस्टल मे मनाये सारे त्योहारों को मिस कर रहा हूँ!
सारे दोस्त अपने कैरियर को बनाते हुए अपने पैरेंट्स के साथ खुश होंगे पर मेरी तरह वो भी उन दिनों को याद करते होंगे जब मग जो रंग से भरा हुआ था दोस्त के सर पर उड़ेल दिया था! दोस्त की ग्लास में पटाखे रखकर छुटाए थे! होस्टल के कई मग और बाल्टी शहीद कर दिए थे!
बचपन में घर छोड़ते हुए जितने आंसू बहाए  थे, उससे कहीं ज्यादा आज ख़ुशी है की बहुत सारे अच्छे दोस्त है मेरे पास! साथ ही है ढेर सारी यादें जो अहसास दिलाती है की यह अनमोल अमानत हर किसी के पास नहीं है!



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