Tuesday, July 24, 2018

मैं लौट आया हूँ...

अरसा हो गया कुछ लिखे...नहीं,लिखा तो पर शायद दिल से नहीं, दूसरा पढ़ाई और परीक्षा की तैयारियों में इतना व्यस्त हो गया था की इधर ध्यान कुछ कम गया। मेरे जैसे झोलाछाप ब्लागर की यही समस्या है की मैं चाहता हूँ की जब भी लिखूं तो कुछ ऐसा लिखूं जो क्रांति ला दे पर यकीन मानिये तब तब मैं कुछ भी नहीं लिख पाता हूँ।इस वजह से बहुत कुछ अनकहा रह जाता है।ये मेरी वापसी है,घर वापसी और ये घर वापसी संभव हुई है मेरी एक फेसबुक मित्र श्रीमती आरती बाजपेयी दुबे जी की एक बात से की "आप को पढ़ने वाले अगर दो लोग भी है तो भी आप लिखिये।आप के लिखने से इतना तो होगा ही की सबको मालूम पड़ेगा की देश अभी भेड़ों का झुंड नहीं बना है।"
तो मित्रों मैं तो लिखूंगा अब क्योंकि मैं लौट आया हूँ

Thursday, November 24, 2011

कहानी हमारी और हमारे देश की-१

 किसी भी देश और समाज के विकास के लिए साथ वर्ष का समय कम नहीं होता है! इतने ही समय में चीन और द्वितीय विश्वयुद्ध में तबाह होने वाले जापान और जर्मनी जैसे देशों ने आर्थिक और तकनीकी क्षेत्रों में अपने को इस लायक बना लिया है की उन्हें दूसरों के आगे हाथ पसारने की जरुरत नहीं है ! ऐसे में जब हम अपने देश के स्वातंत्र्योत्तर काल के साथ वर्षों के दौरान हुए विकास कार्यों का आकलन करते है तो काफी निराश होना पड़ता है साथ ही यह भी महसूस होता है की १८५६ ई० में ब्रिटिश दासता से देश को मुक्त करने का जो अभियान शुरू होकर १९४७ ई० तक चला उसमे शामिल होकर फांसी में लटकने वालों, गोलियां खाने वालों या सत्याग्रह पथ का अनुगमन करते हुए वर्षों तक जेल की यातना भोगने वालों की जो सोच और और सपने थे इन साथ वर्षों में उनसे  विपरीत दिशा में यह भारत जा खड़ा हुआ है!
                      कौन जिम्मेदार है इसके लिए हम या हमारी सरकार? आप नहीं बोलेंगे क्योकि इसके लिए हम ही जिम्मेदार है, क्योकि हम हमेशा से यही सोचते आये है की यह जिम्मेदारी तो सरकार की है, लेकिन यकीन मानिये इन सारे विकास कार्यों में जितने भूमिका सरकार की बनती है उससे कही ज्यादा हमारी! 
           चलिए एक बार आपका कहा मन लेते है की ये सारी जिम्मेदारियां सरकार की है पर ऐसी सरकार का चुनाव किसने किया है जिसके शाषणकाल में हमे देशहित के लिए जरुरी जन लोकपाल, राईट टु रिजेक्ट जैसे कानूनों को लागु करवाने के लिए धरना प्रदर्शन, अनशन और आन्दोलन करना पड़ता है! फिर भी हमारी जायज मांगों का जवाब हमे पुलिस की लाठियों से दिया जाता है ?
              जवाब हम खुद है क्योकि हमने ही चुनी है यह भ्रष्ट और तानाशाह सरकार! कैसे चुनी यह सरकार इसकी कहानी सुनिए , हमारे क्षेत्र के एक जन प्रतिनिधि है जो की इमानदार और बेहद ही साफ सुथरी छवि वाले है वो एक प्रतिष्ठित पार्टी से भी है और हम ये भी मानते है की वो ही इस पद के लायक है परन्तु उनके विपक्षी हमारे चाचा ,मामा या मित्र निकल आते है तो हम अपना मत किसे देते है? ईमानदार को ? नहीं हम अपना मत अपने मामा को चाचा को है ना! क्यों करते है हम ऐसा? क्योकि जब हमे ठेके लेने होते है मामा या चाचा ही हमरे लिए सिफारिश करेगा ईमानदार प्रतिनिधि नहीं या जब अवैध खनिज के साथ हमारी गाड़ी पकड़ी जाती है तो वाहन परिचालन अधिकारी को हमारी गाड़ी छड़ने के लिए फोने कौन करेगा ...हमारा चाचा या मामा या फिर जब हम किसी महिला के यौन उत्पीडन जैसे केसों में फसेंगे तो पुलिस हमें हाथ भी नहीं लगाएगी क्योकि पुलिस अधीक्षक और पुलिस कमिश्नर हमारे मामा या चाचा का हुक्म बजाते है!
          सच पूछिये तो हमारे देश के इस पतन के लिए हम ही जिम्मेदार है क्योकि हम सच से डरते है और सच यह है की हमारे देश में भ्रष्टाचार में आम नागरिक से लेकर मंत्रियो की फ़ौज तक सभी गले तक दुबे है! सच यह है की आज भी हमारे देश में उतनी ही आर्थिक विषमता है जितनी ६० साल पहले! सच यह है की एक फार्मूला ट्रैक बन जाने और उसमे रेस के सफल आयोजन हो जाने भर से हम विकसित देशो की कतार में नहीं है सच यह है की हम आज भी कर्तव्यों से ज्यादा अधिकारों को महत्व देते है सच यह है की हमें अब आज़ादी पाने के लिए चुकाई गयी कीमत का भान नहीं रहा! सच यह है की हम आज भी प्रतिभाओं का पलायन नहीं रोक पाए है! सच यह है की हमे आज भी तकनीकी के क्षेत्र में रूस व अमेरिका के सामने हाथ पसारने पड़ते है! सच यह है की हम अपनी संस्कृति व भाषा का सम्मान करना ही भूल गए है और सबसे बड़ा सच यह है की हम इस सच का सामना करने से डरते है! मेरी बात मानिये अब इस सच से डरना बंद करिए और उसका सामना कीजिये! ये हमारा देश है और इसे हमे ही बनाना है, इसे कैसे चलाना है ये हम तय करेंगे  गाँधी परिवार, ओबामा को सिखाने की जरुरत नहीं है! 
      हमे इसे भ्रष्टाचार मुक्त, तकनीकी युक्त, व आर्थिक विषमता से दूर एक संपन्न राष्ट्र बनाना है 
मै तो तैयार हू इस कडवे सच का सामना करने के लिए , क्या आप है ?...........................................
                                                                जय हिंद जय भारत 
                                                                      वन्दे मातरम 

Saturday, October 29, 2011

प्रकृति से वैर

चित्रकूट भगवन राम की कर्मस्थली एवं हिन्दुधर्म का एक पूज्यनीय तीर्थस्थल है! यहाँ कल्लोल करती माँ मन्दाकिनी का पवन तट है, विध्याचल पर्वत माला की श्रंखलायें है सीधे शब्दों में कहें तो प्रकृति और आस्था का अनूठा संगम है चित्रकूट! परन्तु पिछले कुछ वर्षों से आस्था प्रकृति के ऊपर कुछ ज्यादा ही हावी हो गयी है! 
चित्रकूट में प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु आते है सभी प्रभु कामतानाथ के दर्शन पाकर कृतकृत्य होकर जाते है और बदले में कामतानाथ जी को पोलीथिन आदि ढेर सारी गन्दगी दे कर जाते है साथ ही यहाँ के प्राकृतिक वातावरण से छेड़खानी भी करके जाते है! 
      चित्रकूट के बारे में जानने वालों को पता होगा की यहाँ संतों का काफी बड़ा जमवाडा है, इन श्रधालुओं में एक बड़ा वर्ग इन संतों का शिष्य समूह रहता है! अगर ये संत अपने इन शिष्यों को धार्मिक उपदेशों से इतर समाज एवं पर्यावरण के प्रति भी सचेत अथवा जागरूक बनाने का प्रयास करेंगे तो तो उनकी बातों का हो सकता है उन शिष्यों पर ज्यादा प्रभाव होगा! साथ ही अपने शिष्यों को वृक्ष लगाने, गन्दगी न फ़ैलाने, व पोलीथिन का प्रयोग न करने के लिए प्रेरित करे, नदियों में अस्थिफूल व हवन की राख वगैरह न फेंकें लोग पर्यावरण के महत्व को समझे इसके लिए इन बातों को अपने प्रवचन में शामिल करें! लोगों को समझाएं की प्रकृति से वैर किये बिना ही अपने कार्य व धार्मिक अनुष्ठान पूरे करें! पोलीथिन की जगह कपडे, कागज व जूट वगैरह के बैग प्रयोग करें!
                    वास्तव में चित्रकूट तो एक उदहारण है,पर्यावरण के प्रति लापरवाही हमारे देश के नागरिकों की एक बड़ी समस्या है! लोग पर्यावरण के की सुरक्षा को नज़रन्दाज करते है जबकि उनकी स्वयं पूरी जिंदगी प्रकृति के इर्द गिर्द ही बीतती है! जब हम प्रकृति के सहारे ही जी रहे है तो उससे वैर क्यों? प्रकृति से वैर के नतीजे देर सवेर हमे भुगतने ही होंगे अतः उससे प्यार करना सीखिए!
          तो आइये आज ही हम सभी पर्यावरण की सुरक्षा का संकल्प ले और उस पर पूरी ईमानदारी से अमल करें   ताकि हम अपनी उस भावी पीढ़ी को एक खुबसूरत, साफ सुथरा व स्वस्थ भविष्य दे जो यही पास वाली गली लुका छिपी खेल रहे है!
आइये हम सभी भारतीय शपथ ले की हम अपने देश को पुनः खुबसूरत व हरा भरा बनायेंगे! हम अपने  अधिकारों के साथ साथ अपने कर्तव्यों के प्रति भी जिम्मेदार बनेंगे!
                                                     जय हिंद, जय भारत 

   

Friday, September 30, 2011

भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा ?

भारत की संसद में २२ जुलाई २००८ को जो कुछ भी हुआ था  सारी दुनिया ने उसे देखा था ! उसके बाद बंगलुरु , अहमदाबाद , सूरत, गुवाहाटी जैसे शहरों में हुए धमाके जिनकी गूंज दुनिया भर में सुने दी! जम्मू  में हुआ संघर्ष भी किसी से छुपा नहीं है! २जी स्पेक्ट्रम से मचा बवाल और अली हसन कांड सबके सामने है! ये सभी घटनाएँ और दुर्घटनाएं हाल के दिनों की है! दरअसल ये सभी घटनाक्रम कुछ न कुछ संकेत करते है! ये हमारे लोकतंत्र के वर्तमान की दशा और दिशा बता रहे है! उस लोकतंत्र की दशा और दिशा जिसने ६२ वर्षों से भी ज्यादा का सफ़र तय  कर लिया है! देश की अखंडता, एकता और सुरक्षा का ताना बना तर तर होने की कगार पर है! और दुर्भाग्य ये है की किसी को भी समझ नहीं आ रहा की कैसे इसे टूटने से बचाया जाये और कैसे इसे और अधिक मजबूत  बनाया जाये!
    दुनिया के सबसे ज्यादा भ्रष्ट देशों  की सूची में भारत ने अपना ऊँचा स्थान कायम रखा  है! देश के कोने कोने में आतंकवाद और नक्सलवाद की आग धधक रही है! आंतरिक सुरक्षा का खतरा बढ़ता जा रहा है! 
   अर्थव्यवस्था, राजनीती और समाज में हताशा बढ़ रही है, जो मूलभूत क्षमताएं हम भारतीयों की थी वो लुप्त होती जा रही है, संतुलन और सद्भाव समाप्त होता जा रहा है! दरअसल भारत अन्दर से कमजोर होता जा रहा है लेकिन बहरी त्वचा को जबरन निखारा जा रहा है!
भारतीय समाज से समरसता, उदारता , सहानुभूति ,प्रेमभाव ,प्रतिबधिता और राष्ट्रधर्म का पलायन हो रहा है और सामाजिक जीवन में भ्रष्टाचार और दूसरी तमाम बुराइयाँ जोर पकडती जा रही है!
       आज़ादी के बाद देश के नेतृत्व ने भारतीय जनमानस को चुनौतियों से कठिनाइयों और समस्यायों से आँखे मूँद लेना सिखा दिया है! भारतीय जनमानस का मष्तिष्क दिन प्रतिदिन खोखला होता जा रहा है लेकिन इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है, यथा राजा तथा प्रजा! 
        पानी अब सर से ऊपर होने ही वाला है इससे पहले की सब डूब जाएँ हमे इस भ्रमजाल से निकलना ही होगा! युवाओं को आगे आकर देश्रुपी रथ की बागडोर थामनी ही होगी! भारत को अब नए सिरे से अपनी किस्मत लिखनी होगी जो kavi की कल्पना पर नहीं बल्कि जमीनी हकीकत पर आधारित होगी............................! 
                                                               जय हिंद! जय भारत ! 

Saturday, September 3, 2011

यादों का पुलिंदा

शायद मै कभी ना जान पाऊं की उसने क्या क्या किया मेरे लिए 
जैसे की वो छोटी छोटी चीजें 
स्कूल जाने के लिए मेरा इन्तजार करना 
हर बात पर मेरी टांग खींचना 
और कभी मेरी गलती अपने ऊपर ले लेना 
कितने साल गुजर गए 
फिर भी जब वो मेरे पास होते है 
तो मै बन जाता हूँ एक बच्चा दुनिया से बेखबर 
वो है मेरे दोस्त, मेरी यादें, मेरा गुरुकुल, मेरा स्कूल!!!


दीवाली का त्यौहार करीब आ रहा है पर इस बार मुझे वो सब त्यौहार याद आ रहे है जो हमने अपने घर से दूर रहकर मनाए थे! वो होस्टल के दिन थे! नन्ही सी उम्र में माँ पिता जी ने बेहतर भविष्य बनाने के दूर बहुत दूर भेज दिया था! रोते सिसकते अपनों से दूर अजीब जालिमों के बीच भेज दिया था! गुस्सा तो इतना आता था की किताबों को आग लगा दूँ! इन्ही के चक्कर में घर से बेघर होना पड़ा था! कम्बख्त पढाई! 
  धीरे धीरे सिसकियाँ कम हुई जो लोग अजीब और जालिम लगते थे वही अब करीबी लगने लगे! दोस्तों और सीनियर्स ने वही भूमिका निभाई जिसकी उम्मीद पैरेंट्स से होती है! पैरेंट्स की भूमिका हमारे आर्थिक खर्चों का ख्याल रखना और हमारे लिए ढेर सारे सपने बुनने की होती गयी! यकीन मानें तारे ज़मीं पर देखते हुए बचपन का सारा दर्द आँखों से बहने को आतुर हो उठा था! हम सारे दोस्त एक ही नैया पर सवार थे! सब घर जाने को बेचैन, अपनी माँओं को याद करते , गुरुकुल के भोजनालय में घर के खाने का स्वाद ढूंड रहे सब अकेले!
  कहते है ग़म का ग़म से रिश्ता गाढ़ा होता है! सो हम एक दुसरे के साझी हो गए! दोस्त शब्द हर रिश्ते से बड़ा लगने लगा! अब त्यौहार घर पर कम होस्टल में ज्यादा अच्छे लगने लगे थे! खाने की पसंद और नापसंद तक लगभग एक सी थी, रीजन क्लियर था जो भी डिश किचन में कभी कभार अच्छी बनती थी वही सबकी फेवरिट थी! यह हाल हम दो चार दोस्तों का ही नहीं पूरे होस्टल का था!
जब हम होस्टल में कुछ पुराने हो गए रात को होस्टल की चारदीवारी फांद कर बाहर घुमने जाने लगे! मै और शशांक हर हफ्ते जाते थे! सोमदेव कभी नहीं गया बस एक पैकेट बिस्किट ही मंगाता रहा पूरी होस्टल लाइफ में और हम वो भी कभी नहीं लाये! वहां की मस्ती कभी नहीं भूलती, धर्मेन्द्र सिंह को हरी घास दिखा के बैल कह के चिढाना, शैलेन्द्र की शर्ट फाड़ना और लाइट चले जाने पर अरुण को परेशान करना अपनी अलमारी की चाभी से दूसरे की अलमारी खोलना और आदित्यदीप को चड्डी चोर कह के चिढाना कभी नहीं भूलता! रोज विनय से झगडा करके मारना और दूसरे के मारने पर उसको बचाना बहुत याद आता है! दीपांशु को पोजर अनूप साहू को तेल और विजय की पुड़ी भी कभी कभी आँखों में चमक ला देती है! विपुल के साथ हुई दोस्ती पर मिले ताने आँखें  नम कर जाती है! राधेश्याम भैया की योग कक्षाएं दशरथ जी के व्यंग पंडित जी की बुजुर्गियत भरी बातें और धीरेन्द्र भैया के साथ हुई बहस आज भी यादों में जिंदा हैं ! 
भैया जी का खौफ और फेंकने की आदत, दीदी का दुलार और संस्कृत पढाना, खरे पिताजी की हंसी, अवस्थी पिताजी का ना डराने वाला गुस्सा और अनुशासन, गुप्ता पिताजी की कवितायेँ , कमला माता जी का थारे कहने का अंदाज आज भी नहीं भूला हूँ! 
खजेंद्र भैया की मासूम हंसी , संजय भैया से कराते सीखना, छोटे वाले दशरथ जी को बेवजह परेशान करना, नंदू से अपने मन का खाने बनवाने के लिए लड़ना, और दारा को चाय के लिए पटाना कभी भूल ही नहीं सकता !जनार्दन पिताजी के साथ पुस्तकालय जाना, खेतों में घुसकर चने उखाड़ना, टमाटर तोड़ कर एक दूसरे को मारना, पपीते चुराकर खाना , बेर तोड़ने के लिए टंकी जाने के बहाने पहाड़ पर जाना और चोरी से मूली उखाड़ते समय पकडे जाना सब याद है!
अजीत का बोर्ड , दरवाजे तोडना, विक्रम और दीपांशु का विद  एक्शन चुटकुले सुनाना, सूर्यकमल का हर समय सलमान खान की तारीफ़ करना, अन्ज्नेय का चार पैसे वाली ग़जल सुना के पकाना , और गौरव को ढांचा कह के चिढाना, विनय को कूबड़ ,शशांक को नाऊ, मयंक को कल्लू पाल, शुभम को चपटी चिढाना, स्कूल से भाग कर गुप्ता जी के समोसे और लवकुश के यहाँ आलू  के पराठे खाना, शाम की प्रार्थना में अवस्थी पिताजी के भाषण के बीच में सुशील दुबे के साथ बेवजह ताली बजाना भी याद है!
पर जब हम होस्टल से बाहर आ गए तो हम बड़े हो चुके थे यह तो उम्र ही होती है दोस्तों के साथ की यानि की इस उम्र में कुछ ज्यादा ही याद आते  हैं! नतीजा यह की हम घूम फिर के दोस्तों के आस पास अपनी दुनिया बसाने लगे! तैयारी मेडिकल की हो या इंजीनियरिंग या फिर और कुछ, डिफरेंट ग्रुप्स में हम डिफरेंट सिटिज़ में हम बिखर गए लेकिन साथ नहीं छूटा! हम अपने स्कूल के साथियों को ना जाने कहाँ कहाँ से सूंघ लेते और उनके पास जा पहुंचते! अब घर वालों के परेशान होने का वक़्त था! परेशानी वही क्या दोस्त हमसे बढ़कर है?
उनके सवाल हमे खामोश कर देते! बात कौन किससे बढ़कर है नहीं रह  गयी पर उन्हें समझाई भी नहीं जा सकती! हम अलग अलग शहरों में अपना भविष्य गढ़ रहे है इस दौरान यह शगल भी चलता रहता है की कितनी  बार दोस्त की जरुरत वहां हाज़िर होने वाला शख्स कब कितनी बार घर पर मौजूद नहीं है! आप लोग सोच रहे होंगे की दिवाली और त्योहारों की बात करते करते मै इतना नास्टेल्जिक क्यों हो गया था, क्योंकि अब मै होस्टल मे मनाये सारे त्योहारों को मिस कर रहा हूँ!
सारे दोस्त अपने कैरियर को बनाते हुए अपने पैरेंट्स के साथ खुश होंगे पर मेरी तरह वो भी उन दिनों को याद करते होंगे जब मग जो रंग से भरा हुआ था दोस्त के सर पर उड़ेल दिया था! दोस्त की ग्लास में पटाखे रखकर छुटाए थे! होस्टल के कई मग और बाल्टी शहीद कर दिए थे!
बचपन में घर छोड़ते हुए जितने आंसू बहाए  थे, उससे कहीं ज्यादा आज ख़ुशी है की बहुत सारे अच्छे दोस्त है मेरे पास! साथ ही है ढेर सारी यादें जो अहसास दिलाती है की यह अनमोल अमानत हर किसी के पास नहीं है!



Thursday, August 18, 2011

kahani japan ke vikas ki

 इस देश में दो देश बसते है, एक  का नाम है भारत जो देश की ८५% जनता का प्रतिनिधित्व करता  है लेकिन जो बुनियादी सुविधाओं  से वंचित है! इसमें शिक्षा का अभाव है और गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करना उसकी नियति है! दूसरा देश १५% जनता के साथ इंडिया है जो शान- शौकत के जीवन का दंभ भरता है! हमारी कोशिश में  भारत के विकास का भाव होना चाहिए!
     हम सभी ने जापान के बारे में जरुर सुना होगा अरे हाँ  वही जहाँ १९४५ में दो परमाणु बम गिरे थे परन्तु उस जापान को आज हम विश्व के सर्वाधिक विकसित राष्ट्र  के रूप में जानते हैं! चलिए एक प्रसंग बताता हूँ  फिर समझेंगे, मै चित्रकूट का रहने वाला हूँ वहां श्रद्धेय नानाजी देशमुख के सानिध्य में कई वर्ष रहा हूँ एक बार उन्होंने चर्चा के दौरान बताया की भाद्रपद २००१ में ऑक्सफोर्ड विश्वविधालय की शोध छात्रा मूलतः जापानी निवासी ऐरी कुकेता सतना जिले के वनवासी गाँव पतनीकला में दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट के द्वारा किये गए सुधार कार्यों का अध्ययन करने पहुंची! भाषा , खान, पान रहन - सहन  सभी प्रकार की कठिनाइयों  के  उपरांत भी अपने मिशन के लिए तीन दिन तक गाँव वालों के बीच रमी रहीं! 
   इसी गाँव में कुछ समय बाद भारतीय प्रशाशनिक परीक्षा  के द्वारा चयनित प्रशिक्षनार्थी आये  जिन्हें दस दिन तक यहाँ रहकर वनवासी जीवन का अध्ययन करना था! इनमे से अधिकांश गाँव में ना रहकर रात्रि में चमचमाती गाड़ियों में रेत उड़ाते १५ कि0 मी० दूर मझगवां कस्बे में रहते थे क्योंकि उन्हें बिजली के बिना नींद नहीं आती है और खुले में सुबह पखाना कैसे लगे ? 
 जापान के विकसित राष्ट्र बनने की कहानी का कुछ अंश समझ में आया ना ???????????
                                                                   धन्यवाद